Saturday, April 27, 2024
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सदियों तक चलने वाले संघर्ष का परिणाम है राम का धाम

राजेश मिश्र

राम के नाम पर नया इतिहास की बात की जाये तो साढ़े पांच सौ साल के इंतजार के बाद आखिरकार भगवान श्री राम अपने घर में विराजमान हो गए हैं। दो मत नहीं कि 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा ने पीएम नरेंद्र मोदी को एक ऐसी श्रेणी में ला खड़ा किया है, जहां उनको आक्रांताओं से भरे इतिहास को पलट कर एक नए युग की शुरुआत करने वाले के तौर पर याद किया जाएगा।

सर्वदिति है कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत की राजनीतिक मानसिकता में काफी बदलाव आया है। भाजपा ने 1991 से अपने चुनाव अभियानों में परमाणु हथियारों, अनुच्छेद 370 की समाप्ति, अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण और समान नागरिक संहिता को लागू करने जैसे मुद्दों पर अपने विशेष इरादे को उजागर करने से शायद ही कभी परहेज किया हो।

दुनिया भर में दर्जनों प्राचीन सभ्यताएं और संस्कृतियां रहीं हैं. सबने वक्त और आक्रांताओं की विभीषिका झेली है। कई बार ध्वस्त हुए सम्राज्यों ने वापस अपनी रौनक पायी है। लेकिन 22 जनवरी का उदाहरण आने वाली सदियों में नहीं मिलेगा।

22 जनवरी महज संयोग ही नहीं था कि पीएम मोदी के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। ये इत्तिफाक भी नहीं था कि दुनिया में पहली बार ऐसा हुआ होगा कि किसी बहुसंख्यक समाज ने अपने ही इष्ट देव मर्यादा पुरुषोत्तम राम के मंदिर बनाने के लिए इतनी लंबी लडाई लड़ी होगी।

गौरतलब है कि पीएम मोदी के सत्ता संभालने के बाद मानों चीजें आसान होती चलीं गई। सभी पक्षों ने मान लिया कि जो फैसला कोर्ट करेगा, वो मान्य होगा। संघ ने भी ऐलान कर दिया की कोर्ट का चाहे जो फैसला आए, कोई भी हिंदू जश्न नहीं मनाएगा। कोर्ट का फैसला आया और पूरी दुनिया ने दांतों तले अंगुली दबा ली कि आखिर किसी भी तरह की कोई हिंसा नहीं हुई और ना ही कोई भड़काने वाली बयानबाजी हुई।

दो मत नहीं कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिये दशकों तक अदालती प्रक्रिया से गुजरा, कानूनी लड़ाई के साथ सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष हुआ। जिसे राम मंदिर आंदोलन से जाना गया. इस आंदोलन के दौरान बलिदान भी देना पड़ा जिन्हें कारसेवक का दर्जा मिला था. गौरतलब है कि 1949 से लेकर 2019 तक यह आंदोलन उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरा. सड़क, सियासत, अदालती फैसले के बाद अयोध्या में राम मंदिर पधारे। वैसे यदि इस आंदोलन का जिक्र करें तो 1990 का जिक्र करना भी जरूरी हो जाता है। इतिहास गवाह है कि पहले पीएम जवाहरलाल नेहरू से लेकर इन 75 सालों मे भारत की सत्ता पर काबिज हुई सरकारों ने राम मंदिर की राह में कितने रोड़े अटकाए। कोर्ट ने बाधा भी डाली। धर्म गुरुओं ने पेंच फंसाया। लेकिन ये तो नियति ही थी. अब प्राण प्रतिष्ठा के जजमान बन कर पीएम मोदी ने साबित कर दिया है कि इतिहास को बदला तो नही जा सकता लेकिन पलटा जरूर जा सकता है।

जाहिर है कि साढ़े पांच सौ वर्षों के संघर्ष के बाद मिली इस सफलता को बीजेपी ने न केवल जश्न में बदल दिया बल्कि अयोध्या के समारोह को देश के गांव-गांव से जोड़ दिया गया है। साथ ही हर जाति, हर भाषा, हर संप्रदाय, हर क्षेत्र के लोगों को इस समारोह में शामिल होने का मौका देकर राजनीतिक संदेश देने की भी कोशिश भी की गई है।

वाकई पीएम मोदी ने 11 दिनों के अनुष्ठान में कठिन तप किया। जितना कहा गया था, उससे कहीं ज्यादा नियमों का पालन किया। श्री राम से जुड़े हुए मंदिर आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू, केरल के उन तमाम मंदिरों में पूजा अर्चना की। राम-जटायु, मां शबरी, पंचवटी, केवट राज, और राम सेतु के शुरुआत की जगह जैसे कई मंदिरों से दर्शन करके ये संदेश दिया कि पूरे भारत को एक ही धागे ने जोड़ रखा है और वो है राम नाम का धागा।

कहना गलत नहीं होगा कि राम मंदिर ने पूरे देश की सांस्कृतिक एकता को न केवल मजबूत किया है बल्कि इतिहास के पन्नों में उत्तर से दक्षिण को एक सूत्र में पिरो भी दिया है। आज से हजार साल बाद भी लोग 22 जनवरी की तारीख की चर्चा करेंगे।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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