Saturday, April 27, 2024
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विप़क्ष का अस्त्तिव और हाइब्रिड कनेक्शन का पूरा सच

राजेश मिश्र
राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, इसकी झलक विपक्षी दलों के गठबंधन में देखी जा रही है। हम तो इसे हाइब्रिड गठबंधन कह रहे हैं लेकिन यदि प्रिटिंग मिस्टेक हो जाये तो क्या होगा. जैसा कि सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने बठबंधन को ‘ठगबंधन’ बताया है. लेकिन मैं समझता हू कि यह एक ऐसा ‘हाइब्रिड गठबंधन ’है जिसका कोई नेता तो दूर, संयोजक भी नहीं है. मंच पर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर खड़े बीजेपी विरोधी नेता एकता की तस्वीर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उनके आपसी टकराव, मनमुटाव और राजनीतिक होड़ की कहानियां किसी से छिपी नहीं हैं.

यदि गौर करें तो नौ साल पहले देश की राजनीति ने नई करवट ली थी. 26 मई 2014 को बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की सरकार बनी थी और नरेंद्र मोदी पहली बार देश के प्रधानमंत्री चुने गये थे. इन नौ सालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जन-जन के मन में तो बसे ही, अंतरराष्ट्रीय नेता बनकर उभरे.. इसी का नतीजा था कि 2014 के बाद जब 2019 में लोकसभा चुनाव हुआ, तब बीजेपी ने और बड़ी जीत हासिल की.

 

अब 2024 की तैयारियों में हर दल जुटे हैं. आगामी लोकसभा चुनाव में महज़ 10 महीने का वक्त बचा है और बीजेपी के सामने मजबूत चुनौती पेश करने के लिए विपक्षी दलों के बीच एकजुटता बनाने की कोशिश जारी है. इस अभियान में नीतीश कुमार, शरद पवार और अब अध्यादेश के बहाने अरविंद केजरीवाल जी जान से जुटे हुये हैं.

विपक्षी कहते हैं कि सत्ता हासिल करने की कोशिश करना हमारा अधिकार है; हममें से कोई अपने बूते ही नरेंद्र मोदी को नहीं हरा सकता; इसलिए हमें कुछ करना होगा. ‘मुझे कुछ करना है’, यह प्रशंसनीय भावना है. लेकिन क्या यह भावना वैसी ही होनी चाहिए, जैसी पहले कई बार उभर चुकी है, जिसका नतीजा हमेशा शून्य रहा है? इसका मतलब तो यह हुआ कि आप एक ताकतवर नेता और उसकी पार्टी को महज जोड़-तोड़ से हरा सकते हैं। मतलब यह कि एक नेता या एक पार्टी सरकार को नहीं हरा सकता तो क्यों न मिलकर कोशिश करें?

कहते है कि 900 लाला मिल कर एक मूली नहीं उखाड़ सके? मुझे नहीं मालूम कि इस कहावत का मतलब क्या है? लेकिन लॉजिक कहता है कि तोंद वाले को लाला कहते है., लेकिन तोंद तो केजरीवाल जी की भी है, लेकिन दिखती नहीं. ऐसे में सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर का यह कहनां सही लगता है कि यह गठबंधन नहीं ठगबंधन है. अब जरा सोचिये कि वह भला मूली तो क्या क्या .गाजर, आलू, शलगम, प्याज.. कुछ नहीं उखाड़ सकता। फिर चाहे वो चाहे पांच मिल जाये या पचास.

बहरहाल 2024 की बात करे तो ’जिसकी जितनी ताकत होगी, सत्ता में उसकी उतनी हिस्सेदारी भी होगी. इस हिसाब से  बीजेपी विरोधी सरकार बनाने की कोशिश भी करेगी. लेकिन मिलकर लड़ने के लिए सीटों के बंटवारे का समझौता कैसे हो पाएगा? कहने की आवश्यकता नहीं कि बहुमत वाली सरकार जब भी गद्दी पर मजबूती से स्थापित हो जाती है और उसे हराना किसी एक के बस के बाहर हो जाता है, तब-तब विपक्षी एकता का विचार हवा में तैरने लगता है.

आज जबकि 2024 के आम चुनाव में वोट डाले जाने के लिए लगभग एक साल बाकी रह गया है, तब विपक्ष उसी नाकाम विचार को आज नया रूप देने में जुटा है। इसलिए इस हाइब्रिड गठबंघन के अधूरे सच को समझने की जरूरत है। कल्पना कीजिए कि राहुल गांधी (मल्लिकार्जुन खड़गे) से लेकर ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, एम.के. स्टालिन, के. चंद्रशेखर राव, पिनराई विजयन, अखिलेश यादव, मायावती, नीतिश कुमार, हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव, नवीन पटनायक, वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी तक तमाम नेता एक ही मंच पर जमे हैं. इन सबके मेल से एक जबरदस्त गणित तैयार होता है.

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण समस्या यह है कि इन सबको एक साथ बांधने वाला कोई साझा वैचारिक सूत्र नहीं है. इसके बाद, आप उन नेताओं की सूची बना सकते हैं, जो एक साथ बैठ नहीं सकते, मसलन अखिलेश और मायावती. इसके बाद आप ऐसे मिश्रण तैयार कर सकते हैं, जिनमें विपक्षी दल अहम राज्यों में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं. कांग्रेस हर जगह ‘आप’ के खिलाफ है और तेलंगाना में केसीआर के खिलाफ है. फिर वैसे विरोधाभास हैं, जैसे कांग्रेस और वाम दलों के बीच हैं. 1969 के बाद आज ये दोनों पहली बार वैचारिक दृष्टि से इतने करीब आए हैं। ये सब इतनी बड़ी समस्याएं हैं कि आप यह कल्पना कर ही नहीं सकते कि ये सब भाजपा को चुनौति दे पायेंगे.

महत्वपूर्ण बात ये भी है कि मतदाता इतने समझदार हो गए हैं कि वे भांप लेते हैं कि सुविधा का गठबंधन क्या होता है। वे जान लेते हैं कि उन्होंने जिस शख्स को भारी बहुमत से दो बार सत्ता सौंपी थी, वे आज अपने हितों के लिये एकजुट हो गए हैं. हमारा राजनीतिक इतिहास कहता है कि गठबंधन कभी कारगर नहीं हुआ. एकजुट गठबंधन कुछ विशेष, सीमित स्थितियों में कारगर होता है, वह भी खासकर राज्यों में. लेकिन यह किसी अखिल भारतीय मेल के रूप में कभी कारगर नहीं हुआ.

( लेखक के अपने विचार हैं)

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