•राजेश मिश्र
बिहार की राजनीति हमेशा किसी रहस्य] किसी मोड़ और किसी अप्रत्याशित कहानी से भरी रहती है। यहाँ चुनाव सिर्फ़ मतदान की प्रक्रिया नहीं, बल्कि सामाजिक मनोविज्ञान का ज़िंदा अध्ययन है। इस बार भी तस्वीर कुछ वैसी ही है—एक तरफ़ चमत्कार करने वाले नेता और दूसरी तरफ़ बहिष्कार करने वाली जनता।
चमत्कार की राजनीति बिहार में नई नहीं। आख़िरी सप्ताह में हवा बदल जाना] किसी छोटे दल का अचानक प्रभावी हो उठना, या कोई लोकल मुद्दा पूरे चुनाव का रुख मोड़ देना—ये सब यहाँ की मिट्टी के स्वभाव में है। ऐसा लगता है जैसे बिहार का मतदाता अंतिम क्षण तक अपने पत्ते छुपाकर रखता है, और फिर अचानक सबको चौंका देता है। चुनावी भविष्यवाणियाँ जब विफल होती हैं, तभी लोग कहते हैं— “ये है बिहार का चमत्कार।”
दूसरी ओर जनता का बहिष्कार अब एक तेज़ और सीधा संदेश बन चुका है। गाँवों में अकसर सुनाई देता है—
“सड़क नहीं, वोट नहीं।”
“पानी नहीं, वोट नहीं।”
“अस्पताल नहीं, वोट नहीं।”
यह बहिष्कार सिर्फ़ नाराज़गी नहीं, बल्कि व्यवस्था को आईना दिखाने की कोशिश है। लोगों ने समझ लिया है कि अगर उनका मुद्दा गंभीर है और सुनने वाला कोई नहीं, तो वोट न देना भी एक राजनीतिक हस्तक्षेप है। चुनाव आयोग जितना भी जागरूकता फैलाए, यह सच है कि बहिष्कार अब लोकतंत्र की मौन भाषा बन गया है।
रोचक बात यह है कि चमत्कार और बहिष्कार दोनों एक-दूसरे के पूरक भी हैं। किसी क्षेत्र का बहिष्कार किसी उम्मीदवार की चमत्कारिक हार बन जाता है। वहीं किसी नेता की अचानक पॉपुलरिटी किसी दूसरे के बहिष्कार का कारण। राजनीति में यह खेल अब इतना सामान्य हो चुका है कि पार्टियाँ भी इसके मुताबिक अपनी रणनीति बदलने लगी हैं।
सोशल मीडिया ने इस खेल को और तीखा कर दिया है। एक वीडियो वायरल हुआ, नया मुद्दा उठा और हवा बदल गई।
किसी बूथ पर बहिष्कार की तस्वीर फैली और पूरी विधानसभा की धारणाएँ बदल गईं।
युवाओं ने किसी नए चेहरे को ट्रेंड कर दिया तो कुछ घंटों में कहानी पलट गई।
बिहार के चुनाव में आज की लड़ाई सिर्फ़ धरातल पर नहीं, डिजिटल मैदान में भी लड़ी जाती है।
अंत में, बिहार का मतदाता जिस शांतिपूर्वक तरीके से अपनी समझदारी दिखाता है] वही इस लोकतंत्र का सबसे बड़ा चमत्कार है। वह बहिष्कार भी सोच-समझ कर करता है और चमत्कार भी अपनी मर्जी से रचता है।
नतीजों के बाद नेता चाहे जो स्पष्टीकरण दें, पर असल कहानी तो जनता ही लिखती है—अपनी उम्मीदों] अनुभवों और कभी-कभी अपने गुस्से से।
बिहार में चुनाव खत्म होने पर एक बात बार-बार सिद्ध होती है—
यहाँ राजनीति सिर्फ़ खेल नहीं, बल्कि जनता और सत्ता के बीच चलने वाली सतत संवाद प्रक्रिया है। और इस संवाद में चमत्कार और बहिष्कार—दोनों की अपनी-अपनी भूमिका है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण, जितनी अप्रत्याशित।



